इन बातों मे,
इरादों मे
जद्दोजहद मे,
उधेड़-बुन मे,
तुमको कहाँ रखूं 
इस अधूरेपन मे,
मोहब्बत के 
अरमान मे,
या सवालों के 
जवाब मे?
नासमझी का 
दौर था वो,
कुछ जाना नहीं 
तुम्हारे सिवा,
किस-किस पहलू 
को सवारूं 
तुम्हारे इन्तेज़ार मे?
आज याद है 
तुम्हारी 
मुझको चिढ़ाती,
राम से मिलवा के 
राम को प्रश्न उठाती,
कौन से गम उठाऊ
कुछ इत्मीनान मे?
अब भेद जाती है 
कुछ बातें पुरानी,
आज समझ भी 
कर रही 
खुलकर नादानी,
अब गांडीव 
को सजा लूँ 
कौन-से बान मे?
अब फ़कीरी की 
फितरत है
राम के दरबार मे,
मन खोजना चाहे
खुद को कैलाश 
के धाम मे,
देश की वेदी पर 
तुमको कौन-सी 
पुकार दूँ?
 
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