बार-बार आती,
यौवन की
माया को माने
और भड़क जाती,
यह चाहती
भ्रम तौला जाए
नए-नए रूपों मे,
कुछ आजमाना चाहती
हर स्वाद को
कयी स्वरूपों मे,
शृंगार का मद
रखना चाहे
ये चिरकाल बचाकर,
अपने उतावलेपन को देखे
प्रतिबिंब सब पर बैठाकर,
पर कहाँ-कहाँ
प्रतिबिंब की छाया
के पीछे भागे,
मन जहां पहुँच
को ले जाता
कामना और आगे,
राम की सैया
पायी मिट्टी,
उसको ढोकर दौड़े,
मानव शरीर की
कर पलीद यह
नाहक बैठा रोये,
राम की मिट्टी
मे भरने को,
विवेक-जाप
का पानी,
कामनाएँ
चमकती अनवरत
होंगी तब बेमानी!
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