धर कर बैठे
हाथ पर हाथ,
बंद पलकों के
छ्द्म द्वार,
झुका हुआ
थोड़ा कपार,
पकड़े बैठे
क्षणिक उद्गार,
अन्तर के विचलित
पारावर,
माया की
लोलुपता चाहे
और अधिक
विस्तार, अपार,
कर्म नया
होने को आतुर,
करती है यलगार
राम से दूर
तोड़कर सेतु,
आज रहा ललकार,
कुछ क्षण को
रुका रहे संसार,
आज सहो
क्षण बैठे-बैठे
अन्दर के धिक्कार,
राम की लीला
राम मिटाए,
राम रहित
अंधकार!
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