मन चंचल,
या अनहोनी का
है यह भय प्रबल,
मन होता खिन्न–विकल,
कुछ और आगे चल
करता नया प्रयत्न,
नया व्यक्ति सरल
ढूंढता,
छोड़ता जो जटिल
भरा कोई गरल,
इधर और उधर
कचोटता,
बनाता बातों का जंगल,
एक अनेक
बार बार
छोड़ता विवेक,
कुछ मिलता–जुलता नहीं
आज वह ढूंढता
नया एक संबल,
क्या करता मन एक छल!
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