Sunday 6 November 2022

तृष्णा

यह तृष्णा है
जीवन की,
तुमसे बातें करने की,
इठलाना तुम्हारा देख सकूं
तुमको आतुर करने की,

तुमको आकर छू लेने की
कुछ अंगों को सहलाने की,
अधूरी हमारी है कहानी
उसको पूरा करने की,

तुम्हारा हाथ पकड़ने की
अपने हृदय लगाने की,
आगोश मे भरकर तुमको घंटो
समय, समाज भुलाने की,

देखने की तुमको विभोर
पर तृष्णा और बढ़ाने की,
तुमको कातर कर देने की
और तृप्ति को, अकुलाने की,

करवटें बदल कर तड़प दिखा
तुम्हारा आवरण हटाने की,
जो है अनकही, अनसुनी बहुत
वो मुख से ही बुलवाने की,

सांस गरम कर देने की
रोंगटे खड़े कर देने की,
आखों मे ज्वाला भर देने
और कंपकपी शरीर मे लाने की,

अक्षेप क्षेप के बंधन से
कुछ आगे बढ़ जाने की,
बदन तुम्हारा और उघार कर
उसपर कलम चलाने की,

मुट्ठियां तुम्हारी पकड़ के
मजबूरी कुछ वक्त चिढ़ाने की,
अपने यौवन की मदिरा का
तुमको ही पान कराने की,

अपने बलिष्ठता मे दबोच कर
तुमको और सताने की,
होने वाले को रोक ज़रा
कुछ नाहक श्राप जुटाने की,

कटाक्ष तुम्हारे झेल वार 
मर्यादा मेरे भुलाने की,
तुम्हारी–मेरी तृष्णा को
मृग–तृष्णा बहुत मिटाने की,

पर वक्त वो सारा गुजर गया
जो नाव तुम्हारा ठहर गया,
यमुना के ठौर पे ठहरा है
अपना भी सत्य ये बदल गया!

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