देखता हूँ नदी 
निर्झर,
खग-मृग
शहर-बियाबान,
बहार, बगान 
बागबां,
वो आने वाला मंजिल 
वो बीता हुआ रास्ता,
नीचे मिलों तक चली 
और फिर आगे चलती नदी,
दोनों पर समदृष्टि 
दोनों से समान दूरी,
दोनों की आशंका 
दोनों मे दिलचस्पी,
हाथ पकड़ते फूल 
पैर खींचते कर्म,
रस- निरस की व्याकुलता 
और किम-कर्त्तव्य सधर्म?
यहाँ के राम 
वहाँ के राम,
यह जीवन का सेतु 
मोह-मर्म, अज्ञान!
 
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