उसका सच,
मैं कहाँ जानता 
खुद का सच,
अपने कर्म का भारीपन 
मैं उड़ेल दूँ 
उसके ऊपर,
कह दूँ उसे 
जो जानती है,
जिससे छुपकर 
मुस्काती है,
कुछ पल उसकी 
मुस्कान मिटा,
मैं कालिख पोत लूँ 
जीवन पर,
कुछ कहूँ की 
वो चिंघाड़ उठे,
या मौन ही हो 
जल राख बुझे,
उसका देकर 
आदर्श उसे,
मैं चढ़ बैठूं 
सीने पर !
 
No comments:
Post a Comment