Sunday 10 March 2024

उजाड़


चाँद नहीं, चाँदनी भी नहीं 
गलियारों में वहाँ रागिनी भी नहीं,
सितारें नहीं, बदली भी नहीं 
उन अँधेरों मे अब रात भी 
कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं!

सुर नहीं, साज भी नहीं 
बगीचों में बुलाती, आवाज भी नहीं,
दरवाज़ों पर पहचानी 
शख्सियत भी नहीं,
झुंड दोस्तों के,
हरकतें भी नहीं,
चुहलबाजी नहीं 
ऐतराज़ी नहीं,
शाम को आना कहां
इंतज़ार भी कहां,
ख़ामोशी मे देनी है आवाज़ भी
कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं!

पराठे नहीं, 
सब्जियाँ भी नहीं 
अचार का विचार,
गर्म खाना नहीं 
छत पर जाना नहीं,
बाल्कनी कुछ नहीं,
अखबारों के पन्ने 
उड़े हर तरफ,
उठाना नहीं,
फूल खिलते नहीं 
तोड़ना भी नहीं,
खिड़कियों से कभी 
झाँकना भी नहीं,
फ़िल्में भी नहीं 
साधना भी नहीं,
टोटके भी नहीं 
टोंकना भी नहीं,
किचन भी नही
रोटियाँ भी नहीं,
तोड़ने के लिए
ऊंगलियों भी नहीं,
निवाले से बड़ी भूख भी
कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं

तथ्य नहीं
फिर प्रमाण भी नहीं,
तुम नहीं तो
जरूरत भी नहीं 
विकार है 
विषाद है,
कुछ है तो है 
कुछ और की 
दरकार है,
वक्त है, नज़र है 
सरकार ही नहीं,
हमार- तुम्हार नहीं,
आरज़ू नहीं, इन्तेज़ार भी नहीं 
विरान के चौमासे मे उजाड़ भी 
कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं!

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