तुम निभा रही हो,
मै रूठ जाता हूं बहुत
तुम और सता रही हो,
तुम आइना मुझको
मेरा ही दिखा रही हो,
किरदार है तुम्हारा
तुम निभा रही हो,
उसमे रंग है नहीं हिना का
पर भाव का तो है,
एक मगरूर रियासत की
दास्तान का तो है,
इसमें पात्र हैं सजे
कई शहरों के नुमाइंदे हैं,
कई बाग के परवाने
कई साखों के परिंदे हैं,
इसमें कुफ्र की खिदमत है
और राम की तलब है,
इसमें रात की गलती है
और दिन की दुहाई है,
हर शाम की तोहमत को
तुम सहर भुला रही हो,
किरदार है तुम्हारा..
इसमें जिक्र है गीतों का
और तन की नुमाइश है,
आरजूओं का काफ़िलें मे
अशर्फियों को गुंजाइश है,
यहां फिर वही रेलें हैं
जो ख्वाब में देखे थे,
यहां अब वही मेले हैं
जो बाज़ार मे देखें हैं,
यहां थिरक है साथ कि
ज़मूरियत की झाँकी है,
गैरों के उल्फतों मे
हर शख्स जज़्बाती है,
पर्दे बहुत पड़े हैं
अपने फजीहत पर,
उनकी नज़र भी फिसली तो
लुटती ही सानी है,
तुम भी उन्ही की भीड़ मे
आवाज़ उठा रही हो,
किरदार है तुम्हारा
तुम खुलकर निभा रही हो।
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