कब हया की ओढ़नी
वह ओढ़ कर अपनी
नज़र बचाने लग गई
दहलीज धर घर की,
पहनने लगी साड़ियां
जब पर्दों की तरह
खींचने पल्लु लगी
जब और भी खींचने,
जब सर और सीने
ढकने को लगी वह जूझने
वह जब लगी हो नज़र
औरों की बचाने,
कोसने खुद को,
मार खाने और
नहीं भी चिल्लाने,
प्रश्न को मन मे छुपाकर
नजरों से ढूंढने
अपने जैसी मार खाती,
तसल्ली उसी में करने,
डर के घरों में चूल्हे जलाती
और खुद साये से ही डरने,
लड़की शायद तब
बड़ी लगती है लगने,
नहीं है कोई उम्र
की जिसको पार वो करले
तो कहे की अब वो
बड़ी है बहुत लगने।
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