को चमकता देखा,
पर्ण–कुटी मे
दुखों से लिपटा देखा,
देखा जो उसने
भोग की वस्तु
समझकर के,
देखा जो उसने
काम की वृत्ति
में पड़कर के,
उसने कहा
निकाल लूं मै,
स्वर्ण के
इस रूप को
उठा लूं मै,
फूल की खुशबू
वनों मे
व्यर्थ होती है,
इत्र करके
महल मे
फैला दूं मै,
दर्द मे व्यथित हैं
जग के, दीन के बंधु,
आज माया
कि लहर मे
उनको डुबा दूं मै,
माया–लोपित प्राणी
राम को गद्दी चढ़ाता है,
सीता–सा हृदय मे
कौन उनको
अब बसाता है?
चमक से रघुनाथ की
सुर्पनखा भरमा गई,
राघव को वस्तु समझकर
काम से व्याकुल हुई,
प्रेम को मुख पर रखा
और आँख से ललचा गई,
प्रेम को पाने को वो
मुट्ठी समाने आ गई,
राम को पाने को मन के
राम से टकरा गई,
राम की प्यासी बहन
रावण को भी खा गई!
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