बाली क्यूं तू
कर्म करता
मुंह छुपाने वाला?
क्यूं सुग्रीव को
दिखाता दिन
देह छलने वाला?
बाली तू करता बेआबरु
बेटी–समान को,
क्यूं अधर्मी राह चलता
डाह, घात को,
है तुझे फिर राम के
क्यूं दर्श का अब इंतजार,
तीर आकार मार देगा
नरेंद्र का, कर अंधकार,
बाली, किष्किंधा मे कर
निष्काश अपने भृत्र का,
कश्मीर के पंडित सरीखा
नराघात करता आप का,
लंका जलेगी, बिट्टा मरेगा
तब देख लेगा सब,
यह रूप भी संहार का,
जब नरेंद्र तीरों से करेंगे
घात आतंकवाद का,
कब तक छुपा बैठा रहेगा
बाली, गुफाओं–कंदरों मे
और राम क्यूं ढूंढेंगे तुमको
जब तुम छुपे हो बंदरों मे?
है नहीं समझ तुमको
युद्ध के जब नीति का
रह चुन ली है जो तुमने
आतंक और भीति का,
तो होगा फिर शिकार ही
अंत जैसे चींटी का,
नहीं वीर गति नरोचित है
आतंक के संप्रिति का।
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