Friday, 27 June 2025

सुधार

तुम सुधर न जाना 
बातें सुनकर जमाने की, 

कहीं धूप में जलकर 
सुबह से नजर मत चुराना, 
ठंड से डरकर 
नदी से पाँव मत हटाना, 
कभी लू लगने पर 
हवा से गुफ़्तगू न भुलाना, 
किसी की नाक बहने पर 
घर पर मत बुलाना,

कोई कह दे अगर 
करेले की लड़ाई, 
तुम हंस लेना खुलकर 
करेले से न लड़ जाना, 
कोई नमस्ते कहे तो 
खुशी रहो कह देना, 
किसी को हाथ जोड़कर 
नहीं मुस्कुराना, 

तुम्हारे भक्त हो गए हैं 
गंगा के घाट और कुंड, 
सुबह आरती में तुम 
नहाकर न चली जाना, 
तुम्हारे तिलक पर 
सभी की नज़र है,
तुम अपनों की सुनकर 
भगवान को मात भूल जाना, 

तुम्हारे अन्नपूर्णा को 
तुम्हारा इन्तेज़ार है, 
कभी भीड़ से डरकर 
चुप न हो जाना,
किसीको पता नहीं 
तुम कोहिनूर हो, 
मेरा दामन छोड़कर 
कहीं मुकुट न जड़ जाना,
लोग जी रहे हैं 
तुम्हारा जीना देखकर, 
तुम उनकी सुनकर 
जीना न भूल जाना,

कोई कद कोई काठी 
वहाँ पहुँच नहीं सकती, 
कोई रंग-रूप की बात 
तुमसे पच नहीं सकती, 
तुम पैर ढंकने के लिए 
पाजामे मे न फंस जाना, 

'कुत्ता' कह दिया तो 
बड़ी बात बनी होगी, 
खाना साथ न खाया तो 
उनकी भूख मरी होगी, 
कभी बकरियों की चोरी 
पर हुआ हो घमासान, 
कोई भूत बनकर डर गया 
चाहे निकल जाए जान, 
तुम उनकी तंग-दिल बातों को 
कभी दिल पर न लगाना, 

तुम्हें देखकर कई 
अरमान उठते होंगे, 
तुम्हें बताकर कई 
बच्चे लड़ते होंगे, 
कोई तोड़ देगा टीवी 
अपनी नई घर की आज 
कोई प्रेम का अपने 
बतायेगा राज, 
तुम बच्चों की टोली में 
बड़ी मत हो जाना!

नजर

मुझे देखती हैं 
अब हर पहर, 
तुम्हारी ये 
झरोखों सी नजर,

पूछती हैं सवाल 
मांगती हैं जवाब,
मेरे होने की वजह 
मेरे जीने का ख्वाब,
ये कैसी कहानियों 
खुली है नहर,

इसमे है मेरा शहर 
दिन रात दोपहर,
मेरा ऑफिस 
मेरा घर, 
मेरे किचन का खाना 
मेरे दोस्तों का चिढ़ाना, 
मेरे बस की सीट 
मेरे ट्रेन की टिकट,
मेरा सोना 
मेरा जगाना, 
मेरा सूर्य नमस्कार
मेरा ऑडिट का उधार, 
मेरा खानदान 
मेरे मुहल्ले का पान, 
लावा और सुमन 
मेरा शबर, मेरा चैन 
मेरे करवटें वाली रैन,
मेरे गंगा की सुबह 
प्रयाग की शाम, 
मेरे अस्सी और राजघाट 
मेरा लस्सी मेरा चाट
मेरा सिनेमा का पर्दा 
मेरा 90 दिन का वादा,
मेरी सीता और चालीसा 
मेरे हनुमान और गीता, 
मेरा शक्तिमान 
और व्योमकेश
मेरा साधारण सा वेश, 
तुम्हारी शॉर्ट और 
सुबह का तिलक, 
हमारी रात भर की बात 
तुम्हारी शैतानी 
और शबाब, 
मेरे भारत के सब काम 
मेरे तुलसी मेरे राम,
मेरे चाक की कुम्हार 
मेरी सागर की लहर 
तुम्हारी नजर
ये हैं मेरी नज़र!

Friday, 20 June 2025

शिव-शक्ति

तुम शक्ति मैं शिव 
तुम ब्रह्मास्त्र मैं गांडीव, 
तुम गंगा का 
विस्तार प्रलयंकारी
मैं स्थित जटाधारी,
तुम चांद, मैं चंद्र-शेखर
तुम नदी, मैं सागर,

तुम गगन, मैं क्षितिज 
तुम अगन, मैं जल,
तुम खनन, मैं खनिज 
तुम पवन, मैं बल,
तुम खुदा , मैं हाफिज 
तुम धरा, मैं अचल,

तुम गुमान, मैं मुस्कान 
तुम आवेग, मैं समाधान,
तुम खुलापन, मैं विधान
तुम सलीका, मैं नादान, 
तुम किलकारी, मैं ध्यान 
तुम क्रोध, मैं शैतान

तुम प्रयास, मैं छल
तुम आज, तुम कल,
तुम रास्ता, मैं मंज़िल
तुम अवतार, मैं हासिल, 
तुम प्रिया, मैं नाम
तुम सिया, मैं राम!





 

Tuesday, 17 June 2025

नींद

मेरी नींद ले गई 
ख्वाबों की सच्चाई, 
मेरे साथ आ गई है 
जबसे मेरी परछाई, 
मेरे कहने से सुनने
के बीच फैली है,
एक लंबी दास्तान 
कई मिलों की तन्हाई, 

मेरी आने वाली सुबह 
मेरी ढ़लने वाली शाम, 
मेरे पढ़ने का तरीका 
मेरे चलते-फिरते काम, 
मेरी कुश की चटाई
मेरी दोपहर के ध्यान, 
कुछ धुले हुए कपड़े 
कुछ पर्दों का कलाम, 

तुम सभी में हो गई हो 
तुम सब समय पड़ी हो, 
मेरे लेकर सारे आराम 
तुम हो गई कोई काम, 
मेरी नींद भी नहीं 
और समय का नहीं ध्यान, 
तुम रात की नमाज 
और सुबह की इबादत, 
तुम शाम आरती 
तुम गोधूलि का राम!

Friday, 13 June 2025

जादूगर

तुम हो कोई जादूगर 
तुम्हारा होना है असर, 
तुमसे मिला नहीं, 
आया कभी पास भी नहीं, 
बस तुमने ली खबर 
मैं हो गया बेख़बर,

धीरज से हुआ मैं बेसबर
मदहोश हो गया हूं शाम-दोपहर, 
पम्मी का नाम था यूँ जहर 
तुमने छुकर कर दिया शहद,

ये नदी, ये झील 
ये सागर, ये लहर,
ये थे अपने मेरे 
हमसफर,  हमनफज,
ये शहर, ये सड़क 
ये मंदिर और नहर, 
ये सभी दोस्त थे
कल तक, हर पहर, 
अब चुप हो गए हैं
मुस्कुरा भर रहे हैं 
क्यूँ मुझे देखकर, 
बियाबाँ हो गए 
अब तुम्हारे बगैर,
पड़ी है तुम्हारी 
ये कैसी नजर,
क्या कर दिया है
कहो जादूगर?

मेरे राह सकुचाते उधर
छुने को चाहें तुम् चवर,
आस्मां निहारे तुम्हारी झलक,
गले से लटक कर
बगीचे की डाल,
पूछे तुम्हारा 
चिढ़ाकर के हाल,
खिंचाई करत हैं
आम की बउर, 
अटक जात है माथे
गजरा बनकर,
रस्ता रुकाके
चौराहे क पीपल,
कहत बाड़े बाबु
देखाता न आजकल?
सबपर तुम्हारी 
लगी है नज़र, 
कैसे ये करती हो
तुम जादूगर?

सबेरे उठाकर के
पूछ ता मम्मी,
आई मेहरिया 
भुला जईबा पम्मी,
मुझसे मेरी बाँसुरी 
भी अलगाई, 
फूंका जो मैंने 
हँसी-खिलखिलाई,
झाड़ू लगावत
कहत बानी भउजी,
तकिया के छोड़ा 
 लियावा जा सब्जी,
मामी तो कहती 
तनी मुस्किया के,
केसे बतियावत 
रहे रतिया के?
बहन कह रही
लगाकर के मुक्का,
मने मन छुहाड़ा
मने मन मुनक्का,
सबको तुम्हारा 
लगा इंतजार, 
जादूगर तुम्हारा है
कैसा कमाल?












Monday, 9 June 2025

दिहाड़ी

एक दिहाड़ी काटकर
मुझे घर बनाना है,
एक दिहाड़ी रोककर 
मुझे छत लगाना है,
एक दिहाड़ी खोदकर 
रोटी जुटानी है,
एक दिहाड़ी नापकर
चुल्हा जलाना है,
एक दिहाड़ी चलाकर
उनको दिखाऊं फिल्म, 
एक दिहाड़ी जलाकर 
बच्चों को दे दूं ईल्म, 
एक दिहाड़ी जोड़कर 
संघर्ष करना है,
एक दिहाड़ी तोड़कर 
कोई फार्म भरना है,
एक दिहाड़ी मोड़कर 
ठेके पे चलना है,
एक दिहाड़ी गाड़कर 
बालकनी मे मालिक के
मनीप्लांट उगता है,
एक दिहाड़ी जब्त कर,
वो पॉलिसी किनता है,
मैं काट लुंगा आज 
कुछ बच्चों की दिहाड़ी,
मैं उड़ा हूं आज 
लगा पंखों को पहाड़ी!



प्रणाम

एक बार फिर 
बिना मतलब 
प्रणाम लिख दो,
तुम मेरे नाम 
कोई बात लिख दो,
हम बार-बार झांकते हैं
तुम्हारे मैसेज बाॅक्स मे
गाहे-बगाहे 
एक मुस्कान लिख दो,

कुछ मांग लो अधुरे 
ख्वाहिशों की फेहरिस्त से,
कुछ सुना दो अपने
महकमों के किस्से, 
कुछ शिकायत होगी तुम्हारी
इस दुनिया जहां से,
कुछ थामी होगी जुर्रत 
तुमने एक हाथ से,
कुछ खुलने वाली 
जुबाँ तुमने ऐंठ दी होगी,
किसी अबला कि खातिर 
फिर कोई तकलीफ ली होगी,
अख़बार समझ मुझको
कोई पैगाम लिख दो!

Saturday, 31 May 2025

भ्रम जाल

कह दिया मजाक मे
देह के उल्लास में,
विनोद कर लिया
या किया था रंज,
और अलग-थलग 
जब हुआ बेरंग, 
छा गया भ्रमजाल
हो गया मैं तंग,

जो रचे किरदार 
जो दिया संवाद, 
आ गया बनकर
पूर्ण रुप विवाद, 
बना शब्द बाण
कर दिया प्रहार
भंग करके रंग 
छेड़कर विषाद,

अपने भीतर अनंत
गूंज उठा नाद,
गगनचुंबी गर्जन
अनंतिम हाहाकार, 
विप्लव विशाल 
प्रचंड पारावार, 
अट्टहास कठोर
आत्म पर आघात!

हिम्मत

नहीं रोकने की 
जुटाई वो हिम्मत, 
नहीं गालियों से 
जूझने भर थी हिम्मत, 
नहीं ही मिलाया
नजर भी विदा पर,
नहीं देखने की
आंसुओ की थी हिम्मत,
किया था जो वादा
निभाई न हिम्मत, 
तुम्हे गले भर लूं
दिखाई न हिम्मत, 
चलने को होगी 
बड़ी राहें अलग-थलग,
कहां मोड़ने की थी
राहों की हिम्मत!

वो गली

कैसे उस गली में
आऊंगा चलकर, 
जहां पर तुम्हारे 
हाथ धरकर बढ़ा था, 
कैसे वो देखूँगा 
मैं सब नज़ारा, 
जहां संग तुम्हारे 
मिला नजर घुमा था,
वो राह क्या होगी 
जहां तुम मिलोगी, 
कहां से चली थी 
कहां तक रहोगी, 
कहां बाज़ुओं की 
ऊंगली-सी दिखाकर,
मेरे खामोशी का 
शबब पूछ लोगी,
क्या कहकर बढ़ेंगे 
कदम तुमसे आगे
तुम मेरे वादों की
खबर पुछ लोगी!

Sunday, 25 May 2025

अकेली

जिन राहों पर वो साथ हमारे 
हाथ पकड़ कर जाती थी,
उन राहों पर कल खड़ा रहा
वो राह अकेली जाती है,
जिन किस्सों से मैं तंग हुआ
जो बार-बार दुहराती थी,
अब मन में उनकी ख़लिश रहे
बस याद अकेली आती है,
जिस दुकानदार के चाय के प्याले
हम साथ-साथ मे पीते थे,
जिनके खातों की मांग हमारी
कई माह रह जाती थी,
उनके पैसों को चुका किया
पर स्याह अकेली जाती है!

जिन हँसी-ठिठोली को गपशप से
हाथों-हाथ बनाते थे,
जिन बातों की आह पकड़
हम आंसूं रोक न पाते थे,
जिन वादों की कसमें हम
होंठ मिलाकर खाते थे,
उन जनम-जनम के वादों की
अब साख अकेली जाती है!

जिन बातों के फोन में चर्चे
कंबल मे छुप जाते थे,
जिन रातों के वक्त 
चांद के साथ निभाते थे,
जिन नींद के आगोश को
हम लोरियों-सा गाते थे,
जिन सिसकियों को हाथ धर
हम चूमते और पीते थे,
उन स्याह अंधेरी रातों की
बिसात अकेली जाती है!

जिन चौराहों के चाकों पर
हम आते-जाते मिलते थे,
जिन मोड़ों के सिग्नल पर
हम रुठकर पैदल चलते थे,
जिस स्टेशन के घाटों पर
हम साथ रोटियाँ खाते थे,
जिन कार्यालयों के उपवन से 
फूल तोड़कर लाते थे, 
जिस समय की कुछ पाबंदी मे
हम घड़ी से दौड़ लगाते थे, 
उन सीढियों के जीनों से 
मुलाकात अकेली जाती है!











Thursday, 22 May 2025

कली

धूप से लड़ी
हवाओं से खिली,
किसी सहारे के बिना
बेलों-सी चढ़ी,
मेरी उपवन की 
आखिरी कली!

सड़क के मोड़ पर
आकर मिली,
किसी भाव मे विकिर्ण 
किसी ताप से जली,
कई राह छोड़कर 
पगडण्डी पर चली, 
मेरे जेठ की धूप मे
छांव-सी अली!


Monday, 19 May 2025

बापू का फैशन

क्या बापू का फैशन था 
क्या मोहन का मोर-पंख,
क्या लंगोट की वाणी थी 
क्या बिगुल बजा क्या शंख, 

क्या सत्य की समझ नयी जैसी 
क्या चाल नई मतवाली थी 
क्या सबको लेकर चलना था 
किससे सकल चुराई थी?

क्या मोटर चाह के लेना था 
क्या रेल के डिब्बे फर्स्ट क्लास, 
क्या लोग से दिखना अलग-थलग
क्या उनको राह दिखानी थी?

Sunday, 11 May 2025

दादी

 दादी आती थीं बात करने 
कुछ भूल चुकी थी सब 
कुछ बचे हुए हो भुलाने, 
अपना रुतबा और शिकायत 
हमसे कहकर दुहराने, 

इधर से उधर 
और फिर कहीं और,
वो बातें करती थी 
बिना सर और पैर, 
जब याद आया बच्चा 
कह दी उसकी बात, 
और दिवंगत पति 
उनकी बड़ी औकात,
फिर नन्हा-सा पोता
और बहु की बात, 
उनके रोज़ के झंझट
और उठाते हाथ, 
दादी आती थी बताने 
धूप और बरसात

दादी का कंकाल 
बिस्तर से छोड़े पिंड, 
लाठी की टेक 
चले बाँधकर ज़िल्द, 
हरिया-झरिया का बंगाल 
छोटे कमरे का ओट,
और बहन-भाई का
मन मंदिर का खोट, 
सबको मिलती मुक्ति 
दादी का बैठा दर्द, 
दादी का मैं सबरी
दादी मेरी राम!🙏🏽😇

Friday, 9 May 2025

बल

बल है क्या जिसमें 
भय का सृजन हो, 
ना कांपते अधर 
न ग्लानि का असर,

मुस्कान हो और प्रार्थना
स्थिर खड़ी हो याचना,
शब्द शील बंध हों
धैर्य की हो धारणा,

यह बल हो प्रतिबिंब 
जिसमे देखे स्वयं को वीर,
इसमे बहुत चंचल 
हनुमान कब गंभीर?

राम का हो नाम
राम की हो आश,
राम के अश्रु
राम का ही बल!

Sunday, 20 April 2025

कागजी

ये खयाल कागजी
ये मिजाज कागजी,
हमारे-तुम्हारे रबाब कागजी

समय की जुबा
समय का लतीफ,
ये हमारे तुम्हारे 
ज़ज्बात कागजी,

मिले हैं तुमसे
मिलेंगे कहाँ फिर, 
ये खुदा हाफिजों 
का रिवाज कागजी!

इलाहाबाद

हमारा शहर था 
हमारा था, 
हमारा ठिकाना 
अपना ठिकाना, 
गंगा का किनारा 
यारों का सहारा,
पढ़ने की लत 
और उड़ने की हद,
सबको मिला था 
खुला आशियाना, 

पेड़ों के नीचे 
पढ़ाई-लिखाई, 
मटके का पानी 
और सत्तू मे लाई, 
आम के जोड़ों के 
किलो भर निवाले, 
आंदोलनों के भरे
किस्से अखबारें,
किसी हशरतों को
मन में दुहराना!


Wednesday, 9 April 2025

प्रेम

प्रेम की परिभाषा 
आयी मेरे अन्तर 
शांत हुई जिज्ञासा, 
त्याग की नई भाषा 
देखी मैंने अन्तर 
मिटी सकल आशा, 

चित्त का उल्लास 
महसूस हुआ निरंतर 
खुद का है आभास, 
बोली का विन्यास 
राम नाम का अक्षर 
बिना कहे संबाद, 

हर क्षण-कण एहसास
मैं और वो का भेद
गृहस्थ जीवन संन्यास,
भ्रम की माया फांस 
राम राह का लेश
धीर धर्म दिव्यांश!

Sunday, 30 March 2025

इश्क

इश्क़ हुआ है अब
साथ जीने-मरने की सौगंध,
सबसे अलग हो कर सोच 
साथ का इकरार, 
पर समस्या दूर 
WhatsApp की कॉल, 
यह धुर-धूसरित लंब
यह परस्पर प्रेम 
और साथ का दरकार!

सुबह और रात

रात का आराम 
शाम का दिमाग, 
रात का निश्कर्ष 
शाम का विन्यास, 
रात का घर 
शाम का लौटाव,

सुबह की अग्नि 
और रात का जल, 
आज शाम की शांति 
और कल का खल,
सुबह अलग का भाव
शाम को परिवार, 
पास का समाज!

बच्चा

सड़क पर खेलता बच्चा
माँ से बेख़बर, 
पिता की डांट से बेसुध
और कुछ लोग से अनजान, 
किसी भी भय से परे 
और कूद-कूद 
लगाता छलांग 
नाच कर दिखलाता 
और हो रहा मदमस्त,
यह मंच उसका 
यह मंच सारे 
जहाँ पर उसका,
वह दुनिया का कृष्ण!

Saturday, 29 March 2025

हमराही

तुम्हारा साथ हमारे चलना 
और किसी के साथ नहीं, 
साथ हमारे लड़ना 
और किसी से बात नहीं,
तुम्हारा छुपकर हमसे बतियाना 
और किसी को घास नहीं, 
मेरे लिये मिठाई लेकर 
डिब्बा भरकर ले आना, 
मेरी बातों पर खुलकर हंसना 
और किसी से हट जाना, 
मेरे संग की मार्केटदारी
साथ हमारे गोलगप्पे, 
मेरी बनी सहेली मेरी
ऑफिस वाले कुछ गप्पें,
मेरा मजाक बनाना खुलकर 
धोती उधेड़कर रख देना,
साथ हमारे चलते डरना
और किसी से जल जाना,
भजन हमारा सुनकर अपने 
सखियों के संग हंस देना,
दाम लगाना पाई-पाई 
हमसे आकर पक्का करना,
और पसीने के टेसु को
पंखे से छूकर ढकना,
याद आयेगी साथ तुम्हारे
स्टेशन की सब्जी-रोटी,
चिढ़ने वाली झूठी-मूठी
अदाकार छोटी-मोटी

एहसानमंद

एहसान किया था किसीने 
आशियाँ दिलाया था,
किसीने साथ चलकर
राह का कंकर हटाया था,
किसी ने बाजुओं पर
लिख लिया ट्रेन का नम्बर, 
किसी ने ट्रॉलियों को 
खींचकर बस धराया था,
किसी ने बैग धरकर
संग तुम्हारे कर लिया शाॅपिंग, 
दामन किसीका ओढ़कर
तुम लिख रही थी गीत,
सबको किया था याद
महफ़िल सजी थी जब,
आए गुल-ए-गुलफाम
आए फिरके मज़हब,
आए थे सहकर्मी
आए थे हमवतन,
आए सभी थे संत
आए थे कुछ गंधर्व, 
आए थे बदनसीब 
आए मेरे रकीब,
आए थे मेहरबान 
आए थे सब तलब,
मेहंदी लगी तुम्हें
हम ही थे बेख़बर!

Wednesday, 12 March 2025

रुपा

सोने से भी महंगी
एक हमारी रुपा,
उसकी निर्मल नीरवता 
उसकी कोमल चंचलता, 
उल्लासपूर्ण और काबिल 
एक संपूर्ण स्वरुपा!

एक खिली मुस्कान 
एक छवि नादान, 
एक तंज का जोर
एक डंक का शोर,
एक छुपा संदर्भ 
एक अटल विश्वास, 
एक किसी का भेद
एक समर्पित भाव, 
एक छांव की शर्त 
एक तेज की धूप
एक हमारी रूपा!

कहानी

एक कहानी
पूरी सुन लूं, 
राजा की और 
रानी की, 
एक छोर से शुरू करूँ 
और एक छोर तक जाऊँ, 
एक किनारे खड़ा रहूँ 
और एक राग बजाऊं, 
एक सुनाऊँ तुम्हें कहानी 
एक मे मैं बंध जाऊँ, 
एक माँग की मन्नत मांगूँ
एक से प्रीत निभाऊं, 
एक देश से प्रेम करुं 
और एक की शर्त उठाऊं!

Friday, 31 January 2025

प्यार और इंकार

साथ नहीं, साथ-साथ 
मेरी समस्या, मेरा प्यार,
उनपर कुछ अधिकार 
कुछ उनपर विश्वास, 
कुछ रुका हुआ फैसला 
कुछ अपनेपन की फांस, 
यह मिलने की जिद्द
यह रहने की उम्मीद, 
उसका कौन सहारा
मेरा भ्रम है सारा
यह संसार का छोर
यह प्यार मेरा चितचोर!

जात

हमारी एक जात
हमारा काम साथ,
हमारी एक नजर
हमारी एक पहचान, 
हमारी एक चोरी
हमारी एक हंसी
हमारी एक बात
हमारा एक मज़ाक, 
एक दर्द, एक मरहम
एक सर्द, एक गर्म
एक नमक, एक अचार 
एक खून, एक सांस, 
एक खारिज,  एक खाज
एक वचन, एक आवाज 
एक पूजा, एक नमाज, 
एक घर, एक समाज
एक खुशी, एक उल्लास, 
एक राम, एक विश्वास!

Wednesday, 15 January 2025

भ्रष्टाचार

पहले चाय लिए 
फिर थोड़ा-बहुत नाश्ता,
फिर थोड़ी फिरकी
फिर थोड़ा आराम,

थोड़ा-सा काम
और गपशप
थोड़ी गहरी नींद
रात्रिभोज और देर शयन, 
वासनापूर्ण लोचन,
कुछ ओढ़े तंग 
चमकी बसन, 
बदला मेरा
तन और मन
आया मेरा करप्शन!


उसका पैसा

उसका पैसा पड़ा
जमीं पर,
उसकी भूख हद की
मरोड़ पर,
ऊंची आवाज 
और खिजलाहट 
यह समाज की 
बेरुखी की
झुंझलाहट, 
सोमरस मे बिसरे
कायदे के बोल,
ये डर दुकानदार का
ये ग्राहकों के धौंस, 
एक दूसरे के सन्मुख 
कृष्ण के दो ठौर!


Monday, 13 January 2025

सर्वव्यापी

मित्रों के साथ नहीं 
थोड़ी बातों की लगे दुकान,
कुछ जीवन की हो गपशप 
कुछ आस-पड़ोस का ज्ञान, 
कोई सड़क के लंबे रस्ते 
जो रात चले सुनसान,

सेक्रेटरी के साथ नहीं 
थोड़ी बहुत शिकायत 
थोड़ा मिलकर काम, 
थोड़ी चिट्ठी-पत्रि
थोड़ा मान-सम्मान, 
थोड़ी साफ़-सफ़ाई
थोड़ी चली जुबान, 

परिवार के साथ नहीं 
थोड़ा खाना पीना 
थोड़ा tv देखना 
थोड़ा सैर-सपाटा
कुछ लाए चीनी-आंटा
कुछ छत के ऊपर छत
कुछ टूटे-जुड़े मकान, 

समाज के साथ नहीं
कुछ होते मिलन-समारोह,
कुछ 

कुरुक्षेत्र का आम सिपाही

मैं कुरुक्षेत्र का आम सिपाही 
मुझे ग्यान की क्या दरकार 
क्या है सत्य मेरे लिए 
क्या है भावना,
मेरी क्या संदेह 
कौन मेरा मित्र 
कौन सहोदर, 
क्या पाप? कैसा पुण्य 
मेरे युधिष्ठिर और 
मेरे दुर्योधन मैं खुद!

मेरा छोटा राज्य 
मेरे घर के भीतर, 
मेरा एक परिवार 
सब जीने को कातर, 
एक ही संकल्प 
एक ही दरकार, 
हमारे जीने की कवायद 
हमारा मात्र संघर्ष, 
हमने जीवन से मिलकर 
अपनी कसम निभाई...

जिंदगी हमारी जुआ 
गरीबी शकुनी-सी आतुर, 
सोम- क्षुधा के मध्य 
दाव लगता है सबकुछ, 
आदेश का पालन बुद्धि में 
जीने भर दाने मुट्ठी में, 
हमने आदर्शों की 
चूल्हे में चिता जलाई!

Friday, 10 January 2025

माँ का संकल्प

मुझको रखे महफ़ूज़ 
दुनिया से बचाकर, 
मेरे लिए सब बला 
सब को भगाकर,
झूठ को भी जानकर सच 
झूठ को फैलाकर घर-भर 
रोती रही रात भर 
रही रंज में इस कदर, 
कर संकल्प माँ कर संकल्प,

बड़ी-बड़ी नज़र 
यह स्वीकार नहीं की मैं 
दूर होऊं कुछ पल, 
सब राजपाठ 
आया जो कहीं से 
जाए नहीं किधर, 
यह कहर-कहर 
रोके मुझे घर नज़रबंद,
ना मिल किसी और से 
ना बात हो उधर, 
राम से लखन 
दूर करती है हर पहर!

शोर-गुल

थोड़ा शोर-गुल होने दो 
थोड़ा घूम आने दो, 
जो है बहुत ही बहुत खुश 
जिसकी है कदम में
बहुत चुल,
हमारे डाल की बुलबुल 
को खुलकर गुनगुनाने दो,

जो शाम शाखों पर 
नशेमन में दुबक जाते, 
जो रात काजल की तरह 
पलकों पर सजा लेते, 
उनको हुए महफ़ूज़ 
थोड़ा मशहूर होने दो, 

जो मिलाकर हाथ 
हममें मिलके बैठे हैं,
आज जो औरों की बाबत 
महफ़िल में बैठे हैं, 
उनसे हमारी साख में 
कुछ भूल होने दो!

सुधार

तुम सुधर न जाना  बातें सुनकर जमाने की,  कहीं धूप में जलकर  सुबह से नजर मत चुराना,  ठंड से डरकर  नदी से पाँव मत हटाना,  कभी लू लगने पर  हवा स...