जिन राहों पर वो साथ हमारे
हाथ पकड़ कर जाती थी,
उन राहों पर कल खड़ा रहा
वो राह अकेली जाती है,
जिन किस्सों से मैं तंग हुआ
जो बार-बार दुहराती थी,
अब मन में उनकी ख़लिश रहे
बस याद अकेली आती है,
जिस दुकानदार के चाय के प्याले
हम साथ-साथ मे पीते थे,
जिनके खातों की मांग हमारी
कई माह रह जाती थी,
उनके पैसों को चुका किया
पर स्याह अकेली जाती है!
जिन हँसी-ठिठोली को गपशप से
हाथों-हाथ बनाते थे,
जिन बातों की आह पकड़
हम आंसूं रोक न पाते थे,
जिन वादों की कसमें हम
होंठ मिलाकर खाते थे,
उन जनम-जनम के वादों की
अब साख अकेली जाती है!
जिन बातों के फोन में चर्चे
कंबल मे छुप जाते थे,
जिन रातों के वक्त
चांद के साथ निभाते थे,
जिन नींद के आगोश को
हम लोरियों-सा गाते थे,
जिन सिसकियों को हाथ धर
हम चूमते और पीते थे,
उन स्याह अंधेरी रातों की
बिसात अकेली जाती है!
जिन चौराहों के चाकों पर
हम आते-जाते मिलते थे,
जिन मोड़ों के सिग्नल पर
हम रुठकर पैदल चलते थे,
जिस स्टेशन के घाटों पर
हम साथ रोटियाँ खाते थे,
जिन कार्यालयों के उपवन से
फूल तोड़कर लाते थे,
जिस समय की कुछ पाबंदी मे
हम घड़ी से दौड़ लगाते थे,
उन सीढियों के जीनों से
मुलाकात अकेली जाती है!